मंत्र जाप से पहले ध्यान का महत्व
मंत्रो के पूर्व “ध्यान” लिखा रहता है, जिसे साधक एक बार पढ़ कर जप करने लगते है। लिखा भी रहता है ध्यान पूर्वक जप करे। अब प्रशन उठता है कैसे ध्यान पूर्वक जप करे मूलतः ध्यान संस्कृत भाषा में लिखा रहता है अतः बहुधा साधक उसके अर्थ ही नही समझते फिर ध्यान करने का प्रश्न ही नही उठता।
बिना ध्यान के सिद्ध मंत्र भी गूंगा होता है उसमें मंत्र सिद्ध का कुछ भी प्रकाश रहता। “ध्यान” के अनुसार चिन्तन करते हुए मंत्र जप करते है। अभ्यास के दृढ़ होने पर ही निखिल पुरुषार्थ की सिद्धि होती है।
श्री बगलामुखी का मुख्य ध्यान
सौवर्णासन संस्थिता त्रिनयनां पितांशु कोल्लासिनी, हेमा भगं रुचिं शशांक मुकुटां सच्चम्पक सगयुताम् । हस्तै मुद्गर-पाश-वज्र-रसनां संविश्वर्ती भूषणैः, व्र्याप्ताग वगलामुखीं त्रिजगतां संस्तम्भिनी चिन्तयेत्।।
इसका भावार्थ है:
सुवर्ण के आसन पर स्थित, तीन नेत्रोवाली, पीताम्बर से उल्लसित सुवर्ण की भांति कान्तिमय अंगों वाली, जिनके मणि-मय मुकुट में चन्द्र चमक रहा है, कण्ठ में सुन्दर चम्पा पुष्य की माला शोभित है जो अपने चार हाथो में गदा, पाश, वज्र वा शत्रु की जीभ पकडे हुए है, दिव्य आभूषणो जिनका सारा शरीर भरा हुआ है, ऐसी तीनों लोको का स्तम्भन करने वाली श्री वगलामुखी का मै चिन्तन करता हूँ।
ध्यान की प्रक्रिया कैसे करें
इस संसार में जो कुछ हम देखते है उसे आंख बन्द कर काल्पनिक दृष्टि से सभी देख सकते है जैसे मनुष्य का ध्यान करना है, तब हम मनुष्य आकृति की कल्पना आंख बन्द कर के कर सकते है। ध्यानस्थ पदार्थ का रंग क्या है, वस्तुतः वह प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाले स्थूल रंग का सूक्ष्म रुप ही होता है। जिसे भी आकार को हम ध्यान में कल्पना नेत्रो से देखते है, वह आकार वस्तुतः सूक्ष्म ही होता है।
‘अथर्वा’ या ‘Aura’ का सम्बन्ध ध्यान से
वस्तु का “अथर्वा” जिसे अंग्रेजी में “ओरा” कहते है, जो प्रत्येक वस्तु के चारो ओर होता है, वास्तव में उस वस्तु का सूक्ष्म शरीर होता है, और ध्यान में हम वस्तु के सूक्ष्म रूप को ही प्रस्तुत करते है।
दूसरे शब्दों में ध्यान में जिस पदार्थ का ध्यान कर रहे है, उसके अर्थवा अर्थात सूक्ष्म शरीर से, अपने सूक्ष्म (कल्पना, मस्तिष्क) का सम्बन्ध स्थापित करते है। अनन्य चिन्तन की अवस्था प्राप्त होते ही हमारा “अथर्वा” तद् रूप धारण कर लेता है, फलतः हम उन सब विशेषताओं से सम्पन्न हो जाते है जो उस “अथर्वा” एवं उसके वर्ण से सम्बन्धित है।
ध्यान और मंत्र जप का संयोजन
पुरातन ऋषि-मुनि यह जानते थे, यह दुःसाध्य कार्य है, जन साधारण ध्यान के द्वारा पूर्ण तन्मयता नही प्राप्त कर सकते, न ही अर्थवा में परिवर्तन कर सकते है। अतः उन्होने ध्यान के साथ वाणी (मंत्रो) का प्रयोग भी किया। वाक् के द्वारा विशिष्ट मंत्र की आवृतियों के द्वारा ध्येय मूर्ति प्रत्यक्ष होती है। मंत्र जप से “अथर्वा” का परिवर्तन हो जाता है।
जब शरीर के रोम-रोम से इष्ट मंत्र के जप का अनवरत अनुभव होने लगना यानी श्वसोच्छवास के साथ स्वयमेव मन्त्र जप होने लगता है।
मंत्र जप की तीन अवस्थाएँ
- वाचिक जप – जो वाणी द्वारा होता है।
- उपांशु जप – दीर्घकालीन अभ्यास के बाद ध्वनि रहित, केवल होंठों की गति से होने वाला जप।
- मानस जप – श्वास-प्रश्वास के साथ स्वतः जप होना, जो चरम सिद्धि है।
इस समय मन्त्र श्वासेच्छवास के साथ मिल जाता है और अन्तिम मन्त्र की चरम सिद्वि में साधक मंत्र मय देह वाला हो जाता है। जो अजपा की वाणी की सूक्ष्म दशा है, अपनी सूक्ष्मता की शक्ति से “अर्थवा” को परिवर्तित करने में पूर्ण सक्षम होती है।
निष्कर्ष
ध्येय मूर्ति (अर्थवा) का ही जो वाक् रूप-मन्त्र है, उसी मन्त्र की सिद्वि (अजपा-दशा) हमारे “अथर्वा” को परिवर्तित कर तद्रूप करने में सक्षम होगी। अतः ध्येय ‘अथर्वा’ व वाक्-रूप (मन्त्र) भिन्न न होने पाये।
कुण्डलिनी जागरण और अर्थवा वर्ण परिवर्तन दो भिन्न कार्य नही है, केवल शब्दो का फेर मात्र है। आत्म-साक्षात्कार के लिए मंत्रो द्वारा ही सबसे सरल व समर्थ मार्ग पाया गया है जिससे कुण्डलिनी जागरण की क्रिया स्वतः हो जाती है, यही तन्त्र का मूल लक्ष्य है।
|| जय माँ बगलामुखी ||